यह शब्द शोर लगे सारे भावो का सिर्फ तमाशा है
उर के सागर भावो के सागर का बुलबुला और बताशा है
मैं बात हदय की श्रद्धा की कैसे बतलाऊं शब्दों से
तुझसी ही मौन रहूं मैं भी अभिव्यक्ति की यह भाषा है
दीप कहूं पर वह भी बुझता, चांद कहूं वह नित प्रति घटता
माना सूरज तम हरता पर, संध्या को वह भी है ढलता नहीं समझ मैं पाई अब तक, तुझे कहूं क्या तुझे कहूं क्या?
सन्मति सागर हो तुम गुरुवर, सन्मति देते सदा रहो तुम
कुसुम कहूं पर मुरझाता है, जरना भी तो सुख जाता है कल कल करता निर्मल जल भी रुक जाने पर गुन्द लाता है
स्फटिक सदस एवं स्वच्छ शुभ, मैं तुझे कहूं क्या तुझे कहूं क्या
रत्नत्रय के श थे तुम, त्ररत्नधारी सदा रहो तुम
पथिक कहूं तो वह थकता है, साधक भी एक दिन डिगता है
जोहरी रत्न माणिक, अनदेखा कूड़े में फिकता है
है ! अमूल्य छबी इस जग की, तुझे कहूं या तुझे कहूं क्या?
सत्य अहिंसा के पथ पथिक, शांति पथ के पथिक रहो तुम
जीवन का था लक्ष्य तुम्हारा, चलना बढ़ना और न रुकना
जगा आत्म में परमात्मा लो, कालुष हर जग मग जग करना
महावीर के अग्रदूत में ,तुझे कहूं क्या तुझे कहूं क्या?
शांत सोम्य निग्रन्थ सन्मति, विश्व वंध हो सदा रहो तुम
महातपस्वी तेरे समुख, जग भर की उपमाए बोनी तुझसी नहीं यहां पर कोई ,अतः रही बिन तेरे अधूरी
भू पर एक अकेला है तु, तुझे कहूं या तुझे कहूं क्या युग सर्जक सुगनायक सन्मति, युग नायक गुरु सदा रहो तुम
रचयिता सरोज शाह