आज भी हैं प्राकृत भाषा में ग्रन्थ प्रणयनकार आचार्य
आज भी हैं प्राकृत भाषा में ग्रन्थ प्रणयनकार आचार्य


 

 

वैदिक साहित्य प्रायः संस्कृत में निबद्ध है, बौद्ध साहित्य पाली भाषा में निबद्ध है और जैन संस्कृत का प्रमुख आगम साहित्य प्राकृत भाषा में निबद्ध है। प्राकृत भाषा में ग्रन्थ लेखन की परम्परा पांच सौ छः सौ बर्ष पूर्व क्षीण हो गई थी। संस्कृत और अन्य भाषाओं में ग्रन्थ प्रणयन अनवरत जारी रहा है। इस इक्कीसवीं शती के प्रारम्भ में एक युवा जैन श्रमण उभर कर सामने आये। प्रारंभ में अपने गुरु के पास जैनेश्वरी दीक्षा धारण किये हुए लघु ग्रन्थों का प्रणयन किया। धीरे धीरे अपनी लेखनी को धार देते हुए अपनी प्रतिभा का प्रथम सोपान प्राकृत में सरस्वती वंदना ‘जयदु भारदी मां जयदु भारदी’’ प्रस्तुत किया। फिर तो जैसे उनकी जिह्वा पर मानो सरस्वती ही विराजमान हो गई हो और उन्होंने एक के बाद एक 48 ग्रन्थों का लेखन कर लिया, जिनमें बारह प्राकृत भाषा में लिखे गये ग्रन्थ हैं। ये प्राकृतग्रन्थ रचनाकार है तपस्वी सम्राट् आचार्यश्री सन्मतिसागर जी महाराज के पट्टाधीश प्राकृतशिरोमणि आचार्य श्री सुनीलसागर जी महाराज। ये विचार बुधवार को सम्यक् श्रुतपीठ द्वारा आयोजित ‘‘प्राकृताभाषा मनीषी आचार्य सुनीलसागर जी महाराज के कृतित्व में लोकव्यापी चिन्तन’’ विषय पर संगोष्ठी के अध्यक्षीय वक्तव्य में श्री अ.भा.दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् के महामंत्री और विद्वद्विमर्श के संपादक डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’ ने व्यक्त किये।

इससे पूर्व कार्यक्रम के मुख्य अतिथि नांदणी महाराष्ट्र पीठ के पीठाधीश भट्टारक पूज्य जिनसेन स्वामी ने अपने वक्तव्य में कहा कि मुझमें जो संस्कार और विद्या है वह पूज्य प्राकृताचार्य श्री सुनीलसागर जी महाराज की ही देन है। मुख्य बक्ता प्रतिष्ठाचार्य पं. पवनकुमार जैन दीवान मुरैना ने आचार्य सुनीलसागर जी महाराज के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उनके 44वें जन्म दिवस के अवसर पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उन्हें तो उपदेश देने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती ‘‘अवागवपुषा’’ उनका तो शरीर अवलोकन मात्र से उपदेश हो जाता है, क्योंकि वे दिनमें एक बार खड़े होकर आहार लेते हैं, दिशायें ही जिनकी अम्बर हैं, अधिकतर मौन रहते हैं, निंदक-प्रशंसक सबको समान रूप से आशीर्वाद देते हैं। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं। डाॅ. आशीष जैन बम्हौरी ने बताया कि आचार्यश्री सुनीलसागर जी कृत पुस्तकें देश के चार विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित हैं, यह बहुत बड़ी उपब्धि है। इस संगोष्ठी में डाॅ. शोभालाल जैन-सागर, प्रो. श्री अशोक कुमार जैन, प्रो. के. सी. जैऩ, प्रो. इन्द्रजीत जैन, प्रो. शशिप्रभा जैन टीकमगढ़, प्रो. बारेलाल जैन, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय-रीवा, पं. निर्मल जैन शास्त्री,  निदेशक सम्यक् श्रुत पीठ टीकमगढ़, श्री अजित जैन जलज, राष्ट्रपतिपुरस्कार प्राप्त प्राचार्य सुरेन्द्र कुमार जैन-भगवां, ब्र. विनय जैन, तिगौड़ा, पं. ऋषम कुमार जैन-बड़ागाँव, पं. ऋषम कुमार जैन, बड़ागाँव, शैलेन्द्र कुमार जैन-भेलसी, पं. राजेश जैन शास्त्री, और पं. चक्रेश कुमार जैन-हटा ने अपने विचार रखे। अन्त में संगोष्ठी के संयोजक पं. सुनील प्रसन्न शास्त्री हटा ने आभार व्यक्त किया।


 

-अनुभव जैन, इन्दौर 845889992, anubhavjain2360@gmail.com