आत्म विशुद्धि के लिए पर्वराज पर्युषण

आत्म विशुद्धि के लिए पर्वराज पर्युषण


-आशीष कुमार जैन शास्त्री (बम्हौरी)


जैन संस्कृति में पर्युषण पर्व अथवा दशलक्षण पर्व का विशेष महत्त्व है। यह पर्व धार्मिक, आत्मिक व सांस्कृतिक नवचेतना को जाग्रत करने में अपनी पृथक भूमिका प्रदान करता हैयह पर्व साधारणताः वर्षावास प्रारम्भ होने के 50 दिन बाद प्रारम्भ होता है। चातुर्मास के पीछे जीवों का संरक्षण और आध्यात्मिक वातावरण निर्माण मुख्य ध्येय रहा है। इस दृष्टि से चातुर्मास के लगभग मध्यभाग में इस महापर्व का प्रारम्भ हुआ है। श्वेताम्बर परम्परा में पर्युषण पर्व कहा जाता है एवं दिगम्बर परम्परा इसे दशलक्षण पर्व के नाम से पुकाराती है। इस पर्व में विशेष रूप से धर्म की आराधना की जाती है। पर्युषण पर्व वर्ष में तीन बार आता हैं भाद्रपद शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक, माघ शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक व चैत्र शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक। सारे देश में विशाल रूप में बड़े उत्साह तथा धार्मिक उल्लास के साथ मात्र भाद्रपद शुक्ल से चतुर्दशी तक मनाये जाते हैं। दिगम्बर परम्परा में यह पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक तथा श्वेताम्बर परम्परा में भाद्रपद कृष्ण 12 से भाद्रपद शुक्ल 4 तक मनाया जाता है।


एक बात विशेष रूप से जान लेने चाहिए की भाद्रपद का ही पर्दूषण हम विशेष रूप से क्यों मनाते है। इस का कारण यह है कि भादों का महीना ही व्रत पर्व त्यौहार का महीना है। आचार्यों ने सम्पूर्ण बारह माह में भादों की महिमा का ही बखान किया है क्योंकि इस भादों के महीने में तीस दिन में 32 व्रतों का आगमन होता है। मल्लिनाथ पुराण में कहा भी है कि जिस प्रकार मनुष्यों में राजा श्रेष्ठ होता है उसी प्रकार से सब महीनों में भाद्रपद नाम का महीना सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि यह माह अनेक व्रतों से भरा हुआ है। इस महीने में सबसे अधिक व्रत आते हैं षोड़श कारण, श्रुत स्कन्ध, जिनमुखावलोकन और मेघमाला ये चार व्रत तो पूरे महीने किये जाते हैं तथा दशलक्षण, रत्नत्रय, पुष्पांजलि, आकाश-पंचमी, सुगन्धदशमी, अन्तचतुर्दशी, चन्दन-षष्ठी, निर्दोष-सप्तमी, तीस-चौबीसी, रोहिणी व्रत, निःशल्य अष्टमी, दुग्धरसी, धनदकलश, शीतल सप्तमी, कांजी बारस, लघु-मुक्तावली त्रिलोक-तीज, अक्षयनिधि व्रत और श्रवण-द्वादशी से व्रत सम्पन्न किये जाते हैं।


आचार्य श्री सुनीलसागर जी महाराज ने पर्वराज पर्युषण (पव्यराय-पज्जूसणो) नाम से प्राकृत भाषा में एक कविता लिखी है। जिसका एक पद्य इस प्रकार है-


पव्वराय-पज्जूसण जयदि, भविय जणाणं दोसं खयदि।


भव्य जनों के दोषों के नाश करने वाला, पर्वराज पर्युषण जयवंत होता है।


पर्युषण पर्व इस इस सारे वाक्य में पहला शब्द है। पर्युषण जो परि + उषण = पर्दूषण अर्थात् सब तरफ से शांति देनेवाला पर्व या पूर्ण रूप उषणा अर्थात वसना। अर्थात् एक स्थान पर स्थिर रूप से वास करने को पर्दूषण कहते हैं। श्वेताम्बर सम्पदाय के ग्रन्थों में पYषण शब्द का उल्लेख विशेष रूप से मिलता हैश्वेताम्बर आगमों में पर्युषण के लिए दो शब्द मिलते हैं- पज्जुसणा और पज्जोसणा। कल्पसूत्र आदि की टीकाओं में पज्जुसणा के अनेक पर्यायर्थक शब्द मिलते हैं। पर्युषण की व्युत्पति– 'परि समन्तात् उषणं निवासः' अर्थात् व्यापकपने से सर्वत्र निवास करना तीन लोक में व्याप्त आत्मशक्ति का प्रसार करना, प्राणीमात्र के साथ सहानुभूति से समभाव रखना तथा कोध, मान, माया, और लोभ आदि के विचारों का उपशमन कर निज स्वभाव में स्थिर होना ही पर्युषण है।


दूसरा शब्द है पर्व जिसका अर्थ है। पूरण करने वाला दिनइसका अभिप्राय यह है कि गृहस्थ जिस आत्मिक कार्य को संसारिक कार्यों में उलझे रह कर के अन्य दिनों में सम्पन्न नहीं कर पाता है उसे वह पर्व के दिनों में पूरा करे। प्रोषध शब्द पर्व का पर्यायवाची है-"प्रोषध पर्व पर्यायवाची' ऐसा चामुण्डराय कृत चारित्रसार में आया है। पर्व एक ऐसे निमित्त होते हैं जिनके माध्यम से मनुष्य आत्म कल्याण के लिए आत्मोन्मुख होता है।


पर्व दो प्रकार के होते हैं- 1. नित्य पर्व और 2. नैमित्तिक पर्व। प्रत्येक मास की आष्टमी, चतुर्दशी और पंचमी नित्य पर्व हैं। आष्टाहिक, दसलक्षण, रत्नत्रय आदि नैमित्तिक पर्व है।


इस पर्व को पYषमन भी कहा जाता है जिसका अर्थ है मानसिक विचारों को पूर्णतया शांत करना। पर्युषण को सर्वछारी यानी सांवत्सरिक पर्व भी कहते हैं। संवत्सर शब्द से पर्व अर्थ में अण् प्रत्यय जोड़कर सांवत्सर की व्युत्पत्ति हुई। वर्ष के अनंतर सम्पन्न होने वाले पर्व को सांवत्सर कहते हैं। इसी के आधार पर इसे सांवत्सरी या सम्वत्सरी कहते हैंपं. कैलाशचन्द्र जी ने जैन धर्म पुस्तक में लिखा कि सांवत्सरिक पर्व अर्थात् त्यागी साधुओं के वर्षावास निश्चित करने का दिनसांवत्सरिक पर्व को केन्द्र मानकर उसके साथ उससे पहले के सात दिन मिलकर भाद्रपद कृष्ण 12 से शुक्ल चौथ तक आठ दिन श्वेताम्बर सम्प्रदाय में पर्युषण कहे जाते हैं। दिगम्बर परम्परा में आठ दिन के बदले दस दिन माने जाते हैं। और श्वेताम्बरों के पर्युषण पूरा होने के दूसरे दिन से दिगम्बरों का दशलाक्षणी पर्व प्रारम्भ होता है। इस तरह श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में यह पर्व बीस दिन तक चलता है। क्योंकि दिगम्बर परम्परा पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा को क्षमावाणी पर्व मनाती है। क्योंकि पूर्णिमा तक रत्नात्रय व्रत चलते है।


दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने द्वादशानुप्रेक्षा की गाथा में क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य इन 10 धर्मों को स्वीकार किया है। वर्तमान में दिगम्बर परम्परा इन्हीं दश धर्मों को स्वीकार करती है। पर्युषण पर्व के दिनों में क्रमशः इन्हीं धर्मों की आराधना की जाती है। और इन धर्मों में से एक-एक धर्म का विवेचन होता है। इन दस धर्मों के कारण इस पर्व को दश लक्षण पर्व कहते हैं, क्योंकि धर्म के उक्त दस लक्षणों का इस पर्व में खासतौर से आराधन पूजन किया जाता है। प्रवचन के लिए बाहर से बड़े-बड़े विद्वान् बुलाये जाते हैं और सभी समाज के स्त्री -पुरूष उनके उपदेश से लाभ उठाते हैंइन दस दिनों में प्रायः सभी स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी शाक्ति के अनुसार व्रत उपवास वगैरह करते है। कोई-कोई दसों दिन उपवास करते हैं, बहुत से लोग दसों दिन एक बार भोजन करते हैं।


इन धर्मों के साथ श्वेताम्बर परम्परा में "साधु" अथवा "उत्तम" ये दो विशेषण प्रयुक्त हुए है। ठाणांग में साधु और उत्तराध्ययन में उत्तम विशेषण का प्रयोग हुआ है। पर दिगम्बर परम्परा में उत्तम विशेषण का ही प्रयोग अधिक प्रचलित है। वैसे दोनों शब्द लगभग समानार्थक हैं। यद्यपि ये मुख्यतः साधु वर्ग के लिए है। द्वादशानुप्रेक्षा (गाथा 68), यथा शक्ति श्रावकों के द्वारा भी उनका पालन किया जाना चाहिए ऐसा पंचविंशतिका गन्थ में उल्लेख है।


साधु और उत्तम विशेषणों के पीछे आचार्यों का यही उद्देश्य रहा है कि साधक धर्माराधना में ख्याति, पूजा, सत्कार आदि का भाव न रखें वल्कि निवृत्तिमार्ग में अपनी चेतना को अधिष्ठित किये रहे|


श्वेताम्बर परम्परा के समवायांग ग्रन्थ के प्रथम भाग में श्रवण धर्म दस प्रकार का कहा गया है। वे दश धर्म इस प्रकार है-क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्यवास।


आचारांग में संति (क्षांति), विरतिं (विरति), उवसयं (उपशम), णिवाणं (निवृत्ति), सोय (शौच), अज्जवियं (आर्जव), मद्दवियं (मार्दव), और लाघवियं (लाघव) इन आठ प्रकार के धर्मों का उपदेश आचारांग में किया गया है।


इसी परम्परा को उत्तरकाल में दश धर्मो के रूप में विकसित किया गया है। यही कारण है। कि आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी के समान ही समवायांग और अन्तकृद्दशांगसूत्र मे दश धर्मों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है।


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