अनन्त के साक्षात्कार हेतु दशधर्म आवश्यक
स्वयं के सुखी होने के संदर्भ में किया गया विचार धर्म कहलाता है जिसे अंग्रेजी में रिलीजन कहा जाता है। इसका समानार्थी रूप विश्वास, आस्था या मत हो सकता है। धर्म एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ बहुत व्यापक है। जो धारण करने योग्य है वही धर्म है। धर्म स्वयं की खोज का नाम है; जन्म, मृत्यु और जीवन के रहस्य को जानना ही धर्म हैवैदिक ऋषियों ने सृष्टि और स्वयं के हित और विकास में किए जाने वाले सभी कर्मों को धर्म माना है। सही कहें तो मूल स्वभाव की खोज ही धर्म है जो एक रहस्य है, संवेदना है, संवाद है जब भी हम धर्म शब्द का प्रयोग करते हैं तो ऐसा लगता है मानों कुछ है जिसे जानना आवश्यक है। मनु ने धर्म के दशलक्षण बताए हैं -
धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीविद्या सत्यम्क्रोधो, दशकं धर्म लक्षणं।।
अर्थात् धैर्य, क्षमाशील होना, अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करना, चोरी न करना आन्तरिक और बाहरी शुचिता इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धिमत्ता का प्रयोग, अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा, मन वचन और कर्म से सत्य का पालन तथा क्रोध न करना यही दशधर्म के लक्षण हैं।
भारतीय दर्शनों में धर्म के लक्षणों की विशद चर्चा देखने को मिलती है। याज्ञवलक्य ने धर्म के नौ लक्षण गिनाए हैं तो श्रीमद् भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बताए हैं। महाभारत के यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं
राष्ट्र की संस्कृति सही मायने में तभी विकसित होती है जब आम जनता में खुशहाली होती है, शान्ति होती है संतोष होता है। धर्म के सत्य अविनाशी स्वरूप को जानकर उसको आचरण में लाया जाए तभी राजनैतिक व सामाजिक उन्नति संभव है। धर्म सार्वजनिक सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक होते हुए भी अत्यन्त वैयक्तिक है।
जैनग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में 10 धर्मों का वर्णन है जो इसप्रकार हैं - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य
कार्तिक अनुप्रेक्षा ग्रंथ में आ. कार्तिकेय स्वामी ने लिखा है -
धम्मो वत्थु सहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो।
रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो॥476॥
अर्थात् वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमादि दसप्रकार के भाव धर्म हैं, रत्नत्रय धर्म है और जीवों की रक्षा करना धर्म है
भारतीय या पाश्चात्य दर्शनों में जितनी भी धार्मिक मान्यताएँ हैं उन सभी में दशलक्षणों पर चर्चा अवश्य की गई है। वैदिक, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई, कन्फ्यूशियस, जैन सभी धर्मों में दशलक्षणों पर किसी न किसी रूप में चर्चा की गई है भले ही शब्दों में अथवा स्वरूप में भिन्नता होजीवन में कषायों की भटकन से दूर क्षमा, मार्दवआर्जव और शौच रूप आचरण स्व व पर दोनों के मंगल का मार्ग प्रशस्त करता है जो सबके लिए हितकारी है। कषाय मुक्ति ही जीवन की की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है वही धर्म है, साधने योग्य हैं, धारण करने योग्य है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें हैं जो जीव के स्वभाव का घात करती हैं इनसे मुक्ति पाना ही धर्म हैआत्मा के गुणों के विकास का नाम ही धर्म है
जीवन में धर्म की उपलब्धि के लिए सत्य, संयम, तप और त्याग की आवश्यकता होती है। ये चारों वे साधन हैं जिनके द्वारा धर्म की प्राप्ति संभव है। इन साधनों के अभाव में धर्म की नींव टिक पाना अत्यन्त दुरुह है। धर्म की पहिचान होने पर कषायों का अभाव होने लगता है। क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच की समझ विकसित होने पर उसको जानने, पहिचानने की क्रिया बलवती होती है, विभावों की धूल छूटती है और जीव को अपने सच्चे स्वरूप का भान होता है। इस स्थिति को जीवन पर्यन्त और अधिक निर्मलता लाने हेतु सत्य, संयम, तप और त्याग का मार्ग समीचीन मार्ग है जिसे अपनाने से आकिंचन रूप 'स्व' प्रगट हो जाता है और बाह्य परिग्रह के निरसन के साथ ब्रह्मचर्य की स्थिति अनुभव में आती है। बाह्य परिग्रह से मुक्त होने पर निर्भार उपयोग आत्मरमण में उपयोगी होता है। यह स्थिति ही जीव के लिए मुक्ति का द्वार खोलती है, आत्मबोध की यह चरम स्थिति है जो अनन्त का साक्षात्कार कराती है। आत्मा के दर्शन अन्तर में झाँकने पर ही होते हैं।
धर्म का समग्र स्वरूप दशलक्षणात्मक है। ये धर्म के अंग स्वरूप हैं। धर्म में अपार शक्ति निहित है वह मानव मात्र को दुख से बचाकर सुखी करने की प्रबल सामर्थ्य रखता है। धर्म सबके लिए कल्याणकारी व विश्व शांति का संवाहक होता है। जैन धर्मावलम्बी इस सर्वहितकारी पर्व को शाश्वत पर्व मानते हैं जो वर्ष में तीन बार - चैत्र, माघ एवं भाद्र माह में आते हैंभाद्र शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक प्रतिवर्ष इस पर्व को विशेष उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। यह माह नैसर्गिक सुन्दरता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है तथा चातुर्मास काल के कारण मुनिराजों का सहज समागम इस पर्व को द्विगणित कर देता है। यह पूर्णतः आध्यात्मिक पर्व है, ज्ञानाराधना व संयम की साधना का पर्व है। धर्म समझने, समझाने व प्रकट करने हेतु इससे सुनहरा अवसर मिलना कठिन है। धर्म के दशलक्षणों में प्रथम लक्षण उत्तम क्षमा है।
1. उत्तम क्षमा - किसी से बैरभाव नहीं रखना, क्रोध नहीं करना तथा सभी के प्रति प्रेमभाव रखना क्षमा धर्म कहलाता है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्रोध रूपी विकार ने उसे ढक रखा है इसलिए हम सब दुखी हैं। अपने स्वभाव में रहने से शांति स्वमेव प्राप्त हो जाती है। क्षमा वीरस्य भूषणम्', क्षमा को विचार नहीं आचार बनाओ। क्षमा से सद्भावनाओं की वृद्धि होती है
2. उत्तम मार्दव - धन, बल, रूप, यश, प्रतिष्ठा आदि का भान नहीं करना सबके प्रति विनयशील रहना मार्दव धर्म है। मार्दव एक आत्मिक गुण है जिसमें सहृदयता तथा सर्वहितकारिता है। जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शास्त्र और शीलादि के विषय में थोड़ा सा भी घमण्ड नहीं करता उसके मार्दव धर्म होता है। क्रोध के अभाव से शांत हुआ हमारा मन यदि मान का त्यागकर विनयशील बन जाए तो आत्मा को परमात्मा बनने से कोई नहीं रोक सकता
3. उत्तम आर्जव - कथनी करनी में अन्तर नहीं करना, कुटिलता नहीं करना, सरल स्वभावी होना आर्जव धर्म का लक्षण है। मायाचारी के अभाव से सरलता की प्राप्ति ही आर्जव है। जो मनस्वी पुरुष कुटिल भाव व मायाचारी परिणामों को छोड़कर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करता है उसके नियम से आर्जव नाम का धर्म होता है। आर्जवधर्म मन को स्थिर करने वाला पापनाशक है। आर्जव स्वयं आत्मा को भव समुद्र से तारनेवाला है।
4. उत्तम शौच - तृष्णा व लोभ के जहर से बचकर जो नीति न्याय से मिल रहा है उसमें ही संतोष करना शौचधर्म है अर्थात् लाभ के अभाव में होने वाली अंतरंग शुद्धि का नाम ही शौचधर्म है। लोभ पाप का बाप बखाना - यह सब कषायों में भारी है। कषाएँ पाप हैं, वह जीव के स्वभाव को कलुषित करती हैं। जैसे-जैसे शुचिता का आगमन होता है वैसे-वैसे ही अशुचिता स्वयमेव कम हो जाती है। पूर्ण शुचिता होने पर लोभ का संपूर्ण अभाव होता है। लोभ एक कील के समान है जिसकी चुभन सारे शरीर को दुख देती है। उत्तम शौचधर्म लोभ का वर्जन कर भव्यों को सुतप की ओर उन्मुख करता है जिससे भव्य आत्माएँ अहर्निश ध्यान करते हुए जरा-मृत्यु रहित होकर त्रिजगत प्रकाशक हो जाते हैं
5. उत्तम सत्य - हित मित प्रिय वचनों के द्वारा सत्य का पालन करते हुए परमसत्य को पाने का प्रयास सत्यधर्म कहा गया है। सत्य को आत्मा का स्वभाव माना गया है। सत्य से उत्कृष्ट कोई धर्म नहीं है। सत्य में सर्वकल्याण की भावना निहित है। सत्यलोक में सारभूत है, कहा भी है --
सत्य ही संसार में, सारे सुखों की खान है।
सत्य ही है देवता, अरु सत्य ही भगवान है।
सत्य और असत्य का भेद समझकर सत्य का अनुकरण ही धर्मसाधन की पद्धति है। हम सत्य के राही बनें, विश्वासी बनें इसी में जीवन की सार्थकता है
6. उत्तम संयम - इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण रखना तथा सभी जीव जन्तुओं की रक्षा करने का भाव उत्तम संयम है। संयम आत्मकल्याण का मार्ग है जो स्वयं पर नियंत्रण करने की प्रेरणा देता है। व्रत व समितियों का पालन, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति का त्याग, यह सब जिसके होते हैं उसको नियम से संयमधर्म होता है। संयम के बिना परमात्म पद की प्राप्ति असंभव है। संयम सम्यग्दर्शन को पुष्ट करता है अतः इसे मोक्ष का मार्ग निरूपित किया गया है
7. उत्तम तप - वासनाओं के संस्कारों को नष्ट करने के लिए इन्द्रिय विषयों तथा आरंभ परिग्रह से बचना तपधर्म हैतप से आत्मा की शुद्धि होती है और इस शुद्धि से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है। जैन साधना पद्धति में तप का महत्वपूर्ण स्थान है। इच्छाओं के रहते तप असंभव है। आत्म स्वरूप में लीन होना ही तप है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों को तथा चारों कषायों को रोककर शुभ ध्यान की प्राप्ति के लिये जो अपनी आत्मा का विचार करता है उसके नियम से तपधर्म होता है। संसार सागर से पार उतरने के लिए तप जहाज के समान है। कर्मक्षय व आत्महित के लिए तप आवश्यक है। हमारे लिए तप ही उपादेय है।
8. उत्तम त्याग - बाह्य में धन, सम्पत्ति आदि का दान तथा अंतरंग से राग-द्वेष मोह का त्याग ही त्यागधर्म है। त्याग पर पदार्थ का किया जाता है, त्याग के बिना सुख की प्राप्ति संभव नहीं। जो जीव सारे पर पदार्थों के मोह को छोड़कर देह और भोगों से उदासीन परिणाम रखता है उसके त्यागधर्म होता है। आवश्यक संचय में से दान करना त्यागधर्म है। संग्रह की प्रवृत्ति को पाप व दान की प्रवृत्ति को पुण्य कहा गया है, पुण्य से ही सुख की प्राप्ति होती है। त्याग की वृत्ति ही मोक्ष का साधन है
9. उत्तम आकिंचन्य - बाह्य तथा अन्तरंग परिग्रह का पूर्ण त्याग होने पर आत्मा का अकिंचन होना आकिंचन्य धर्म है। आकिंचन्य का अर्थ अकेला होना है। जहाँ कुछ भी मेरा नहीं वहाँ आकिंचन्य की स्थिति बनती है। बाह्य और अंतरंग परिग्रह का पूर्ण त्याग कर देने से जब आत्मा अकेला रह जाता है तब आकिंचन्य धर्म प्रगट होता है। किंचित मात्र भी मेरा नहीं ऐसी सम्यक् धारणा बन जाने पर यथार्थ त्याग और आकिंचन्य धर्म होता है। आकिंचन धर्म का चिन्तन व पालन आत्मा को पर के बंधन से मुक्त करता है
10. उत्तम ब्रह्मचर्य - ब्रह्म अर्थात् सच्चिदानन्द आत्मा में लीन होना ब्रह्मचर्य धर्म है। जो पुण्यात्मा स्त्रियों के सुन्दर अंगों को देखकर भी उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है वही दुर्द्धर ब्रह्मचर्य को धारण करता है। ब्रह्मचर्यव्रत का पालन संयम के शिखर पर कलशारोहण की तरह है। ब्रह्मचर्य उपादेय है इससे आत्मा में भव्यता और भावों में निर्मलता आती है। जो पुरुषार्थी संयम व शील का पालन करते हैं वे पुण्यात्मा हैंपण्डित द्यानतरायजी ने लिखा है - 'ब्रह्मभाव अंतर लखो' अर्थात् आत्मा अन्तर में झांकने पर ही दिखाई देती है।
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