परिपक्व व्यक्तित्त्व कभी असफल नहीं होता : गणाचार्य विरागसागर जी मुनिमहाराज


अशुभ से शुभ नाकामयाबी से कामयावी, नैराश्य से आशावान की ओर किया गया प्रस्थान मनुष्य एक परिपक्व व्यक्तित्त्व की पहचान देने लगता है। जब शुभत्व का जागरण होता है तब व्यक्ति में आत्मगुण अनावृत्त होते हैंवह मिथ्यादृष्टि से व्रती, व्रती से महाव्रती, महाव्रती से वीतरागी बनने का पराक्रम करता हैसमत्वदर्शिता प्रकट होती है। मनोविज्ञान की भाषा में भी परिपक्व व्यक्तित्त्व वाला व्यक्ति पूर्णत: सामान्य एवं समायोजित होता है। ऐसे व्यक्तित्त्व कुछ मानक है। वह आन्तरिक द्वन्द्वों से मुक्त रहता है। जीवन की समस्याओं का समाधान सोच-समझरि बुद्धिमत्ता साथ करता है। जीवन की परिस्थितिशों को यथार्थ रूप में ग्रहण करता है। उत्तरदायित्व का सम्यग ग्रहण और निर्वहन करता हैआत्मसंयमी होता है। मित्रों, सहयोगियों, समाज और राष्ट्र के प्रति निष्ठा रखता हैपरिवर्तित परिस्थितियों अनुकूल स्वयं को ढालता हैदूसरों के प्रति अच्छी धारणा रखता है। स्व को क्षति पहँचाने वाले काम नहीं करता हैकृतज्ञ होता है। शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होता है। अच्छे सामाजिक संबंध बनाता है।


प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ए.एच. मैसलों ने अपनी पुस्तक मोटिवेशन एण्ड पर्सनालिटि में परिपक्व व्यक्तित्त्व की व्याख्या आत्मसिद्धि के सन्दर्भ में की है। जिस व्यक्ति के व्यक्तित्त्व में आत्मसिद्धि के लक्षण पाये जाते हैं, उसमें पूर्ण परिपक्वता आ जाती है यह सिद्धान्त मानव जीवन का पूर्ण एवं प्रकाशमान चित्र उपस्थित करता है। उसके स्वभावतया मानव प्रकृति शुभ है, अशुभ नहीं है। ज्यों-ज्यों मानव का व्यक्तित्त्व परिपक्व होता जाता है, मनुष्य की आन्तरिक शुभ प्रकृति अधिक अभिव्यक्त होने लगती है। सामान्यत: परिवेश अच्छे को भी बुरा बना देता है। पर कुछ-कुछ व्यक्ति दूषित परिवेश में भी भले बने रहते हैं। परिवेश व्यक्ति के आत्मसाक्षात्कार में बाधा न डाले यह आवश्यक है। यह रहस्य भिण्ड में विराज मान गणाचार्य श्री विरागसागर जी मुनिमहाराज ने अपनी पीयूष वाणी में अशुभ से शुभ लेश्याओं की ओर प्रयाण के संदर्भ में धर्म सभा को संबोधित करते उद्घाटित किया।


उन्हाने आगे कहा कि जब सबसे अधिक शक्तिशाली और प्रमुख आवश्यकताएँ संतुष्ट हो जाती हैं तो उसके बाद गौण आवश्यकताएँ सामने आती हैं और सन्तुष्टि चाहती हैं। उनके संतुष्ट हो जाने पर प्रेरणा के सोपान में एक कदम और आगे बढ़ती है। इस पूर्वापर क्रम में सबसे अधिक शक्तिशाली से न्यूनतम शक्तिशाली की ओर चलने में सबसे पहले शारीरिक आवश्यकताएँ जैसे भूख और प्यास, फिर क्रमशः सुरक्षा, प्रेम, सम्मान, ज्ञानात्मक, सौन्दर्यात्मक और आत्मसाक्षात्कार की आवश्यकतायें आती हैं।


प्रेरणाओं या आवश्यकता के इस क्रम में समाज-विरोधी या हानिकारक आवश्यकताओं के लिए कोई स्थान नहीं हैमैसलों के अनुसार मनुष्य केवल तभी समाज विरोधी कार्य करता है जबकि समाज उसकी आन्तरिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होने देता है। मानव व्यक्तित्त्व का एक अधिक पूर्ण और व्यापक विज्ञान बनाने के लिये उन व्यक्तियों का अध्ययन आवश्यक है जिन्होंने अपनी आन्तरिक योग्यताओं का पूर्णतया साक्षात्कार किया है।


परिपक्व व्यक्तित्त्व के प्रयोजनपूर्ण समायोजन से व्यक्ति सत्य की अनुभूति करता है। गीता का स्थितप्रज्ञ, बौद्ध दर्शन का अर्हत और जैनधर्म के वीतराग का जीवनदर्शन परिपक्व व्यक्तित्त्व की सर्वांगीण व्याख्या देता है और इस व्याख्या में मुख्य तत्त्व है- समायोजन, सन्तुलन और सामंजस्य। हम कह सकते हैं कि अधिक शक्तिशाली और प्रमुख आवश्यकताएं पूर्ण होने पर मनुष्य परिपक्व हो जाता है और वह अशुभ की क्रियायें छोड़कर शुभत्व में प्रवेश कर जाता है। जैन दर्शन की भाषा में यही है व्यक्ति का अशुभ लेश्या से शुभ लेश्या में प्रयाण।


संकलन-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज', इन्दौर 9826091247