जैन मुनि के अदर्शन परिषह

जैन मुनि के अदर्शन परिषह


                   (चिंता रहित चिंतन )


                                                         -डॉक्टर अरविन्द प्रेमचंद जैन भोपाल

           सुना जाता हैं की पूर्व मुनियों के द्वारा तप के अतिशय से उतपन्न होने वाली सात ऋद्धियों तथा पूजा प्रभावना आदि बहुत अतिशय प्राप्त किये हैं ,सो यह सब कहना मात्र हैं ,क्योकि तत्व का ज्ञाता होने पर भी मुझे उन अतिशयों में से कोई अतिशय आज तक प्राप्त नहीं हुआ ,इस प्रकार आर्त्त ध्यान के समागम से रहित मनोवृत्ति का होना अदर्शन परिषहजय  हैं। यह अदर्शन परिषह जय सम्यग्दर्शन की विशुद्धता से होता हैं।   तप के बल से ऋद्धियों के उतपन्न  नहीं होने पर जिनवचन पर अश्रद्धान नहीं करना अदर्शन परीषहजय  हैं।

           जो संयम पालन करने में प्रधान  हैं ,दुष्कर तप  तपने वाले हैं ,परं वैराग्य भावना  से शुद्ध हृदय युक्त हैं सकल तत्वार्थों के ज्ञाता हैं ,अर्हदायतन ,साधु और धर्म के प्रतिपूजक   चिरप्रवृजित होने  पर भी जब ज्ञानतिशय उतपन्न नहीं होता   हैं तो भी जिन मुनिराज   के मन में महोपवास करने वालों को प्रातिहार्य विशेष उतपन्न हुए थे "यह सब प्रलाप मात्र हैं,असत्य हैं ,यह दीक्षा लेना व्यर्थ हैं इत्यादि भाव उतपन्न नहीं होते हैं उन मुनिराज के अदर्शन परीषहजय होता हैं।


           जिनागम में जीव के दो भेद माने गए हैं। एक संसारी और दूसरा मुक्त जो अष्टकर्मों से रहित हैं वे मुक्त हैं और जोअष्टकर्मों से सहित हैं वे संसारी जीव कहलाते हैं। मोहनीय कर्म सबसे ज़बरदस्त कर्म हैं जो जीव को प्रत्येक पदार्थ मोहित  कराता हैं। मोहनीय  कर्म तृष्णा  की वृद्धि करता हैं ,इच्छाओं को पुष्ट करता हैं ,इच्छा किस   किसकी पर्याय विचार करो जरा, इच्छा मोहनीय कर्म की पर्याय हैं। इच्छाओं  के कारण व्यक्ति संसार में पतित हुआ ,कोई मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर पाया ,इच्छाओं ने ही संसार बढ़ाया।


        वैराग   मय   भावों   से   मेरा ,मन   पवित्र   रहता। 
        सप्त   तत्व को जानने   वाला ,प्रभु   भक्ति    करता।। 


           जो संयमियों में प्रधान हैं ,सदा वैराग्यमय भावों से युक्त रहता संयम  वैराग्यपूर्वक  ही ग्रहण करना
 चाहिए। संसार शरीर और भोगों से जो विरक्त हैं ,घर ,परिवार ,धन, सम्पदा से जो विरक्त जो स्वयं के शरीर से भी विरक्त रहता हैं।  मोक्ष मार्ग वैरागियों का मार्ग हैं ,रागियों का  नहीं। जितना गहरा वैराग्य होगा उतना गहरा संयम होता हैं ,जितना मजबूत वैराग्य होता हैं ,उतना मजबूत संयम  होता हैं। वैराग्य से साधुओं की शोभा होती हैं ,क्योकि वैराग्य की दरिया में ही संयम के कमल खिलते हैं। वैराग्य वैर की परिधि से प्राणी को मुक्त करता हैं। वैराग्य तपस्वियों को अमोघ मात्र हैं ,जन्म ,जरा और मृत्यु रुपी रोगों के लिए वैराग्य संजीवनी हैं। वैराग्य बिना तपस्या एक समस्या  हैं। वैराग्य से संयम का जन्म होता हैं ,वैराग्य संयम की जननी हैं। वैराग्य के बिना वीतरागता प्राप्त नहीं होती और वीतरागता के बिना केवल ज्ञान प्राप्त नहीं होता और केवलज्ञान किए बिना मोक्ष नहीं होता।


           जीव अजीव आस्रव ,बंध ,संवर ,निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व हैं आत्मा अन्य हैं और शरीरादि पुद्गल द्रव्य अन्य पृथक हैं इस प्रकार यह आत्म तत्व का संक्षिप्त सार हैं जो शरीर और आत्मा को भिन्न भिन्न जानता हैं वह अंतरात्मा हैं। हे प्रभु  करुणा कर मेरी भक्ति से मेरी दृष्टि पर प्रसन्न हो जाओ जिससे मैं मोक्ष मार्ग को प्रशस्त कर सकूँ। यह भक्ति की भाषा हैं ,निदान नहीं ,निदान तो भोगों के लिए होता हैं परन्तु भक्ति भोगों से मुक्त होने के लिए होती हैं ,यहीं कारण हैं सप्त तत्व को  जानने  वाला ज्ञानी जीव भगवान् की भक्ति करता हैं ,भक्ति का भरपूर सदा आनंद लेता हैं। 


दीर्घकाल   से   दीक्षित  हूँ मै ,अतिशय   न  होता। 
व्रत  संयम का   पालन करना ,सही   नहीं    होता।। 

           जैन दर्शन में संयम धर्म की प्रधानता हैं। संयम  का पालन घर में समभाव नहीं घर में साधना नहीं विराधना  होती हैं। यही कारण हैं कोई संसार से विरक्त होकर  दीक्षा   ग्रहण करता हैं।  संसार में सब प्रकार के लोग होते हैं कोई भाग्यवान भव्य पुरुष , बाल अवस्था में दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं ,कोई युवा अवस्था में  दीक्षा ग्रहण करते हैं और कोई वृद्धावस्था में संयम धारण करते हैं। कोई दीक्षा का सिर्फ विचार ही करते हैं ,कोई तो विचार भी नहीं कर पाते हैं यूँ ही जीवन निकल जाता हैं। पूज्यपाद स्वामी के चरण जिस थाली में धुलते थे ,वह थाली सोने की हो जाती थी वैसा अतिशय आज नहीं हो रहा हैं ,मेरे चरण चिन्ह चौके में नहीं छपा  । शायद व्रत संयम का पालन करना सही नहीं होता ,मुझे क्या पता था की व्रत पालन करने से कुछ भी नहीं अतिशय नहीं होगा चमत्कार नहीं होगा तो मैं संयम ग्रहण ही नहीं करता व्रत लेकर के मैंने अपने हाथ से  अपने  पैर पर कुल्हाड़ी पटक ली ,दीक्षा लेकर के आपत्ति मोल ले ली ,मुझे क्या पता था मेरे साथ में ऐसा होगा। व्रत का पालन करना सब बकवास ,राज्य छोड़ वनवास हैं और कुछ नहीं। संयम पालन करने  से तो कोई फायदा नहीं होता। 

            नहीं   सोचते  ऐसा मुनिवर , सत     पथ   के   गामी। 
           सम्यग्दर्शन     हृदय   धारते ,मुक्ति      पथ   गामी।। 

            मुझे बहुत दिन हो गया हैं ,तप करते करते दीर्घ काल से मैं दीक्षित हूँ।  लगता हैं ,व्रत ,संयम ,महाव्रत का पालन करना सही नहीं होता यह मोक्ष मार्ग नहीं कष्ट मार्ग हैं मेरे तप से किसी को लाभ हो या न हो परन्तु मुझे लाभ होना चाहिए --तप करने से चमत्कार होता हैं। मुनि तप करते हैंचमत्कार नहीं ,चमत्कार  में तप नहीं होता पर तप मेँ चमत्कार  जरूर होता हैं। जो तप चमत्कार के लिए धारण करते हैं वह उसका तप  संसार का कारण हैं। परन्तु जिस तप से सहज मेँ चमत्कार  होता रहता हैं वह तप ,तप नहीं परमतप हैं और निर्वाण का कारण हैं। सम्यग्दर्शन सदगति या सदमति  का कारण हैं। सम्यग्दर्शन हृदय धारते मुक्ति पथ गामी जो सत्पथ  गामी होते हैं वे कभी विपरीत  विचार नहीं करते हैं।  


 कर्म     निर्जरा   करने  हेतु  ,सत   चिंतन  करते। 
 अदर्शन परीषह    सहने वाले ,निज  दर्शन करते।। 


           कर्म निर्जरा करने  हेतु सत चिंतन करते सदा धर्म ध्यान में समय व्यतीत करते हैं ,कभी ज्ञान ,कभी ध्यान तो कभी तत्व चिंतन करते,मुनिराज स्वपर की चिंता करते  हैं ,चिंता पीड़ादायक हैं। चिंतन पीड़ा का निवारण करते हैं ,सदा सुख के समय सातावेदनीय  का,दुःख के समय असातावेदनीय का चिंतन करते हैं। चिंतन की धारा से दुःख भी सुख की धारा बन जाती हैं ,ज़हर भी अमृत  हो जाता हैं,काँटा भी फूल बन जाता हैं परन्तु चिंतन भी चिंतन जैसा होना चाहिए।,चिंतन भी आगम के अनुसार होना चाहिए ,आगम से रहित चिंतन संसार का कारण हैं। चिंतायुक्त मानव परिषह सहन नहीं कर सकता और चिंतन की धारा में बहने वाला जीव परिषह से डर  नहीं सकता हैं। साधु का स्वभाव ही चिंतनशील होता हैं। 


           अपनी चिंता कारण उत्तम हैं। मोही जनों की चिंता  करना मध्यम हैं और काम वासना के लिए जो चिंता  होती हैं वह अधम और पर की चिंता अधम से भी अधम हैं। अपने आप में हो रही चिंता नहीं स्वयं का  चिंतन करो। पर की चिंता में हमने कितनी पर्यायें समाप्त की इसलिए साधक सत चिंतन करते हैं ,मैं कहाँ से आया हूँ ,मैं कौन हूँ और मुझे कहाँ जाना है।  इस प्रकार से साधक स्वयं का चिंतन करता हैं।चिंतन और चिंता में एक बिंदु  मात्र  का अंतर हैं ,चिंता सजीव को दहती हैं और चिता निर्जीव को दहती हैं।  आत्मा का दर्शन निज की अनुभूति करता हैं,प्रदर्शन करने वाले संसार में बहुत हैं ,दूरदर्शन वाले भी बहुत हैं ,देव दर्शन वाले कम हैं ,सम्यग्दर्शन धारण करने वाले और कम हैं। निजदर्शन करने वाले और कम हैं ,केवलदर्शन वाले बहुत कम हैं। मिथ्यादर्शन धारण करने वाले बहुत हैं। सम्यग्दर्शन पूर्वक जो अदर्शन परिषह सहन करते हैं वे भव्य जीव केवल दर्शन प्राप्त करते हैं। 


            मोक्ष मार्ग पर चलने वाले साधक समस्त प्रकार के परीषहों को सहन कर समस्त कर्मों को क्षय करके परम शुद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं ,परिषह को सहन करने का प्रयोजन सिर्फ यही होता हैं कि मुझे संसार में न भटकना पड़े। रागी क़िस्त -क़िस्त में दुःख भव-- भव  तक  क्या कई भव तक सहन करता हैं परन्तु वैरागी वीतरागपूर्वक समता भाव पूर्वक समस्त दुखों को दुःख न मान कर परिषह मान कर के सहन कर लेता हैं। 


           मैं प्रभु से सदा प्रार्थना करता हूँ मुझ यज्ञ विमद को अदर्शन परिषह सहन करने की शक्ति प्रदान करे जिससे मैं निजदर्शन पूर्वक केवल दर्शन को प्राप्त कर सकूँ। 
      इस प्रकार अदर्शन परिषयजय को प्राप्त कर सकूँ।
                                               


                                                   संरक्षक शाकाहार परिषद्


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