स्वयं को नियंत्रित करने का नाम है संयम धर्म 
(पर्यूषण पर्व का छठवां दिवस उत्तम संयम धर्म)

 

स्वयं को नियंत्रित करने का नाम है संयम धर्म 

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दसलाक्षणिक पर्यूषण पर्व का आज छठवां लक्षण, छठवां अंग, छठवीं सीढ़ी संयम धर्म है। स्वयं को संयत करना, स्वयं पर पूरी तरह नियंत्रण करना, देखभाल कर, सही रास्ते पर चलना, प्राणियों के प्रति हिंसा ना हो जाये और इंद्रियों का दुरुपयोग ना हो जाये इस बात का ध्यान रखना संयम है।

संयम अर्थात् आपनी पांचों इन्द्रिय-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण तथा छठवें मन पर निग्रह अर्थात् वश में रखना, उन पर नियन्त्रण रखना सो संयम धर्म है। स्पर्शन अर्थात् शरीर-सुख हेतु किन्हीं अनैतिक विषय वासनाओं में नहीं पड़ना, रसना- सुस्वादु वस्तुओं के प्रति लालायित नहीं होना, घ्राण- सुगन्धित तेल, फुलेल, सैन्ट आदि में ग्रद्धता नहीं करना, चक्षु- फूहड़ नृत्य देखने, मादक, मन को भटकाने वाले, विषयों का संवर्द्धन करने वाले चलचित्रों आदि को नहीं देखना, श्रोतृ- कानों को प्रिय लगने वाले गीत-संगीत को नहीं सुनना और मन-पहले जो विषय भोग भोग चुके उनका स्मरण नहीं करना, पर-अहितकर कार्यों और स्वयं के स्वार्थ की ओर मन को नहीं लगाना, मन की चंचलता को रोकना सो मन निग्रह है।

एक जैनाचार्य ने कहा है-‘पंचहु नायकु वस करहु, जेण होहिं वसि अण्ण। मूल विणट्ठहि तरुवरहि, अवसहिं सुक्खहिं पण्ण।।’ अर्थात् मन को वश में करलो तो स्पर्शन, रसना आदि पांचों इन्द्रियां अपने आप वश में हो जायेंगीं, क्योंकि पांचों इन्द्रियों का नायक-नेता तो मन ही है। जैसे पेड़ की जड़ को नष्ट कर देने से पत्ते डालियां अपने आप अवश्य सूख जायेंगे।

पाचों इन्द्रियों के वशीभूत होकर कार्य करने वालों के दुष्परिणामों के विषय में कहा है- 

अलि मतंग मृग सलभ मीन, इक इक विषयों में मरते हैं।

परिणाम तिनन्हि का हुइहैं जो पांचों विषयों को करते हैं।।

अलि-भौंरा, मतंग-हाथी, सलभ-कीटपतंगे, मीन-मछली ये सब एक एक इन्द्रिय के विषय की लोलुपता में फंसकर अपनी जान गंवा देते हैं, फिर मनुष्य तो पांचों इन्द्रियों के विषयों को करता है। 

एक भौंरा सुगंध लेने के लिए कमल के फूल में बैठ जाता है, उसकी खुशबू लेने में वह इतना मग्न हो जाता है कि संध्या हो जाती है, फूल मुकुलित-बंद हो जाता है तो भी वह नहीं भागता। भौंरा सोचता है इतने सुन्दर फूल को काटकर बाहर क्यों निकलूं, सबेरा होगा, फूल पुनः खिलेगा और मैं उड़ जाऊँगा। वह भौंरा यह सोच ही रहा था कि कही से हाथी आया, उसने उस फूल के तने सहित पानी की घास को अपनी सूंड़ में समेट कर खा लिया।  भौरे का अंत हो गया। घ्राण इन्द्रिय-खुशबू के विषय के कारण उसकी जान जाती है। हाथी को भी पकड़ कर उसे मारकर हाथी दांत आदि की तस्करी करने वाले लोग जंगल में गड्ढा खोदकर ढॅंक देते थे, फिर मदमत्त कथिनी को जंगल में लेजाकर हाथियों को उससे आकर्षित करवाते हुए गड्ढे के पास ले आते थे। हाथी गड्ढे में गिरा कि उसे मार देते थे। इस तरह स्पर्शन-शरीर सुख की लोलुपता में हाथी जान गंवा देते थे। शीत ऋतु में लैंप, हैलोजिन आदि जलाई जाती हैं, वे जितनी तेज रोश्नी करतीं हैं उतनी ही गर्म भी होती हैं, उनकी रोशनी से आकर्षित होकर कीट-फतिंगे आकर सीधे रोशनी पर ही गिरते और जलभुन कर उनका प्राणान्त हो जाता। सबेरे सफाई कर्मी टोकनियां भर भर कर स्ट्रीट लाइट के नीचे से इन मरे हुए फतिंगों को फेकते हैं। कहते हैं हिरण को संगीत बहुत पसंद होता है। उसे पकड़ने के लिए संगीत बजाया जाता था और पकड़ लिया जाता था। मछली को पकड़ने के लिए तो सब जानते हैं कि एक रस्सी में बंधे दोमुंहे कांटे में आटे की गोली या अन्य कुछ वस्तु (चारा) फंसाकर पानी में डालकर मछली को ललचाया जाता है, मछली ज्यों ही रसना इंद्रिय के वशीभूत होकर उस चारे को मुंह में दबाती कि दोमंुहे कांटे में फंस जाती, ज्यों ज्यों वह खिंचती है त्यों त्यों उसमें और अधिक फंसती जाती है और अपनी जांन गवां देती है।

इस तरह एक एक इन्द्रिय के विषयों के उदाहरण हमें प्राप्त होते हैं अतः पांचों इन्द्रिय और मन को नियन्त्रण में करने को संयम धर्म कहा गया है। श्रमण तो दैनिन्दिन में इन सबसे दूर रहते ही हैं। उनके लिए तो कहा गया है कि पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के साथ साथ त्रस- अर्थात् दो इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय तक के जीवों पर करुणा करना, उनमें से किन्हीं की विराधना न हो, उन्हें कष्ट या उनकी हिंसा न हो इसका अपनी नित्य क्रिया में घ्यान रखना, सावधानी रखना सो उत्तम संयम धर्म है।