क्या राजगीर की सोन भण्डार गुफा में सोने का भण्डार है ?
क्या राजगीर की सोन भण्डार गुफा में सोने का भण्डार है ?

 

-डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर 


 

बिहार अपने इतिहास और प्राकृतिक सौन्दर्यता के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। यहां कई ऐसे दार्शनिक स्थान हैं जो अपने आप में इतने रहस्यमय हैं कि आज जब विज्ञान इतनी तरक्की कर चुका है, फिर भी इनके रहस्यों को सुलझाया नहीं जा सका है। बिहार का एक छोटा सा नगर है राजगीर जो कि नालंदा जिले में स्थित है, कई मायनों मे यह मत्त्वपूर्ण है। यह राजगीर शहर प्राचीन समय में मगध की राजधानी था। यहीं पर भगवान बुद्ध ने मगध के सम्राट बिम्बिसार को धर्मोपदेश दिया था। यहां जैन परम्परा के बीसवें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ के चार- गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक हुए माने जाते हैं। चैबीसवें भगवान महावीर की तो प्रथम दिव्यघ्वनि (विषेष उपदेश) यहां के विपुलाचल पर्वत पर खिरी थी। तथा भगवान के चैदह चातुर्मास राजगीर में हुए थे। यहां पांच पहाड़ों (पंचपहाड़ी) पर भव्य जैन मंदिर हैं।


राजगृह की सोनभद्र (सोनभण्डार) गुफा पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह गुफा राजगृह के वैभार पर्वत के पूर्व - दक्षिण पहाड़ मूल में खुदी है, जो नगर के दक्षिण - पश्चिम की ओर गया मार्ग पर अवस्थित है। यह गुफा प्राचीन राजगृह नगर परिधि के अन्दर और नवीन राजगृह की नगर परिधि के बाहर है।

  कहा जाता है कि मौर्य शासक बिंबिसार ने अपने शासनकाल में राजगीर में एक बड़े पहाड़ को काटवाकर अपने खजाने को छुपाने के लिए गुफा बनवाई थी। जिसे आज तक कोई नहीं खोल पाया। खजाना छुपा होने के कारण इस गुफा का नाम पड़ा था “सोन भंडार”। कुछ लोग इसे पूर्व मगध सम्राट जरासंघ का भी बताते हैं। यहां की दीवार पर शंख लिपि में एक लेख लिखा हुआ है। कहते हैं इस लेख में दरवाजा खोलने की विधि लिखी है। जो यह लेख पढ़ लेगा वह सोने के भण्डार का दरबाजा खोल लेगा। कहते हैं कि अंग्रेजों ने इस गुफा को तोप के गोले से उड़ाने की कोशिश की थी लेकिन वे इसमें नाकामयाब रहे थे। आज भी इस गुफा पर उस गोले के निशान देखे जा सकते हैं। अंग्रेजों ने इस गुफा में छुपे खजाने को पाने के लिए यह कोशिश की थी, लेकिन वह जब नाकाम हुए तो वापस लौट गए। यहां तैनात मार्गदर्शक भी यही कहानी सुनाते हैं। यहां मुख्य द्वार से अलग दीवार में एक ताखा है। गाईड बताते हैं कि इसी ताखे में रखकर अंग्रेजों ने तोप चलाई थी। अन्दर दीवार पर उंगली घिसकर पत्थर पर से कालिख छुटाकर दिखाते हैं कि गोले के कारण ये कालिख अभी तक लगी है देखें।

 

वास्तविकता क्या है 

वास्तविकता यह है कि यहां समानान्तर दो गुफाएं हैं, यह एक गुफा साबुत है, और दूसरी गुफा ऊपर के छप्पर वाली चट्टान टूट जाने से भंग है। मुख्य गुफा 34फुट लम्बी, 17फुट चैड़ी और 11.5फुट ऊँची है। इस गुफा के आगे मुख्य मण्डप या बरामदा था जो खम्बों पर टिका था। अब स्तम्भों की केवल चूलें रह गई हैं। इस प्रकार मुखमण्डपयुक्त गुफा की वास्तु शैली लगभग 5वीं शती ई.पूर्व में ही अस्तित्त्व में आ चुकी थी।

इस गुफा में सन् 1975 तक एक चतुर्मुख जैन प्रतिमा स्थापित थी, जिसमें क्रमशः वृषभ, हाथी, अश्व और बंदर, चिह्न अंकित हैं जिनके अनुसार ये तीर्थंकर ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ और अभिनंदननाथ आदि के चार तीर्थंकरों की प्रतिमांएं हैं। (अशोक की लाट में वृषभ, हाथी, घोड़ा, और सिंह, चिह्न हैं।़) बाद में यह प्रतिमा नालंदा संग्रहालय के बगीचे में खुले में रखी गई थी। खुले में रखे जाने का विरोध होने पर इसे संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है। वर्तमान में यह मूर्ति नालन्दा संग्रहालय में विधिवत् प्रदर्शित है।


 

अभिलेख .- इस गुफा में जाने के द्वार की दाहिनी तरफ ब्राह्मीलिपि (शंखलिपि) में एक शिलालेख उत्कीर्णित है जिसे खजाने के द्वार खोलने की कुंजी प्रचारित किया गया है। दो पंक्तियों के शिलालेख को इस तरह पढ़ा गया है -

 

निर्वाण लाभाय तपस्वि योग्ये शुभे गुहेऽर्हत्प्रतिमाप्रतिष्ठे।

आचार्यरत्नम् मुनि वैर देवः विमुक्तये कारय दीर्घ तेजः।।

 

अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति के लिये तपस्वियों के योग्य और श्री अर्हन्त की प्रतिमा से प्रतिष्ठित शुभ गुफा में मुनि वैर देव को मुक्ति के लिये परम तेजस्वी आचार्य पद रूपी रत्न प्राप्त हुआ। अर्थात् मुनि संघ ने मुनि वैरदेव को आचार्य स्थापित किया।

 

गुफा में एक और लेख अंकित है जो इस प्रकार है -

‘श्रीमद्वीर देवशासनाम्बरावभासनसहस्रकर’

 

अर्थात् भगवान् महावीर के शासन रूपी आकाश को प्रकाशित करने वाला सूर्य। 


 

    उक्त अभिलेख के निकट एक छोटी नग्न मर्ति का नीचे का भाग है, जो निःसन्देह किसी जैन तीर्थंकर की मूर्ति का है। एक चक्र भी बना हुआ है।

यहां जब पर्यटक पहुंचता है तो गाईड रटी-रटाई भाषा में खजाने का परिचय देता है। मैंने स्वयं इस गुफा का 13-14 बार सर्वेक्षण किया है। इस गुफा में अंदर कथित खजाने का कोई द्वार ही नहीं है, जिसे सोने के भंडार का द्वार कहा जाता है। चट्टान में एक पड़ी दरार है और एक खड़ी दरार है। पड़ी हुई से मिली खड़ी दरार कुछ नीचे को है, और फिर विलुप्त हो गई है, अर्थात् दरवाजा क्या चट्टान का के्रक (दरार) ही विलुप्त है। जिसे तोप का निशान बताया जाता है, यदि उसी मार्गदर्शक को कुछ और पारिश्रमिक दें तो बह बता देगा कि यहां कोई तोप का निशान नहीं है। चट्टान की थोड़ी सी  किरंच टूटी हुई है, जिसमें श्रद्धालु कभी कभी मोमबत्ती जलाकर लगा जाते हैं, उसी की कालिख उस दीवार में लगी रहती है। यह तो सोचनीय बात है कि हजारों वर्षों के बाद भी उसमें कालिख कहां से मिलेगी, जिसमें प्रतिदिन हजारों लोग हाथ लगाते हों। सोनभद्र गुफा को सोन भंडार और सोने का भंडार कहा जाता है। अंग्रेजों ने तोप चलाई थी इसके भी कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिले हैं। 

पुराकाल में पहाड़ों में शिलाओं को काटकर गुफा निर्माण को अत्यन्त महत्व दिया जाता था। ऋषि, तपस्वी जंगलों, पर्वतों में विचरण करते थे और प्राकृतिक रूप से बन गई गुफाओं को अपना आवास बनाते थे। वे गुफाएँ उनकी आत्म साधना में सहायक होती थीं, कारण कि शांतिमय वातावरण के साथ - साथ उनमें सर्दियों में गरमी और ग्रीष्म ऋतु में शीतलता स्वाभाविक रूप से रहती थी। इस तरह की विशेषताएँ देखकर राजाओं, सामन्तों, धर्माधिकारियों ने पहाड़ों, पहाड़ियों की चट्टानों को काटकर गुफाओं का निर्माण करवाया, जिनका उद्देश्य यति-मुनियों को शान्तिमय विश्रामस्थल उपलब्ध कराना रहा है। शिलाओं को कटवाते हुए उन्हें तरासने का विचार आया और कुशल कारीगरों द्वारा सम्बन्धित विभिन्न अंकन करवाये। अंकन इतने महत्वपूर्ण करवाये कि वे आज अपना सम्पूर्ण इतिहास संजोये हुए हैं।

सोनभंडार की इस प्रमुख गुफा के समानांतर दूसरी गुफा है। इसमें तो बहुत सुन्दर भित्ति जिन तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। इनका परिचय अलग लेख में हम प्रस्तुत करेंगे।


 

-डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’

22/2, रामगंज, जिन्सी, इन्दौर, मो. 9826091247