उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म

-डाॅ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत


 

आत्मा ही ब्रह्म है, उस ब्रह्म स्वरूप आत्मा में चर्या करना, रमण करना वास्तविक ब्रह्मचर्य है। असल में मनुष्यों की ऊर्जा इन्द्रिय-द्वारों से निरन्तर बाहर की ओर बहती रहती है। जिससे उसकी शक्ति क्षीण होती रहती है। ब्रह्मचर्य उस ऊर्जा को केन्द्रित कर आत्म स्फूर्ति प्रदान करता रहता है। तेजस्विता को बल प्रदान करता है। सतत प्रवाहित होते हुए जल में शक्तियां नहीं रहतीं हैं किन्तु जब उसी जल को बांधकर रोक दिया जाता है, उस एकत्रित जल मंे बिजली का उद्गम होता है। प्रथम तो प्रवाहित होते हुए जल को रोका जाय और दूसरी बात रुके हुए पानी को परिवर्तित कर पावर का रूप दिया जाय उसी प्रकार से काम-भोग की गति है। इसे संयम के द्वारा रोककर ऊपर की ओर बढ़ाया जाता है अर्थात् काम-भोग के रूप में बहती ऊर्जा को ब्रह्मचर्य के ऊध्र्वमुखी उपयोग से आत्मा की शक्ति में परिवर्तित किया जाता है। यही एक ऐसा धर्म है, जो हमारे बहिर्मुखी जीवन को अन्तर्मुखी करता है। बाह्य ज्ञेय से उपयोग हटकर आत्मस्वरूप में ही लीन हो जाय तो इससे बढ़कर धर्म क्या हो सकता है। इसी  से ब्रह्मचर्य को सबसे बड़ा धर्म माना है। ब्रह्मचर्य की पूर्णता चैदहवें गुणस्थान में होती है। आगम में चैदहवें गुणस्थान में ही शील है। इसके 18 हजार भेदों की पूर्णता बतलाई है।

व्यवहार की विवक्षा से स्त्रियों को पुरुषों द्वारा भोगा जाता है, फिर त्याग करना और पुरुषों को स्त्रियों द्वारा भोग-भीरुता से छोड़ना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य संरक्षण के लिए केवल भोगेच्छाओं एवं साधन सामग्री का निरोध ही पर्याप्त नहीं है। विषय-वासनाओं के निरोध के आश्रय से ब्रह्मचर्यत्व की रक्षा के लिए स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं का श्रवण नहीं करना चाहिए। उनके मनोहर अंगों का रागभाव से अवलोकन नहीं करना चाहिए। कामोत्तेजक गरिष्ठ पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। शरीर का श्रृंगार नहीं करना चाहिए। स्त्रियों की संगति से वचना चाहिए। ब्रह्मचर्य की रक्षा उसी में रह सकती है।

ब्रह्मचर्य के समान उत्तम व्रत नहीं है। इस महाव्रत से अनेक ऋद्धियों की प्राप्ति होती है। इससे पुण्य का संचय होता है। पाप का क्षय होता है। देवों के द्वारा प्रशंसनीय ब्रह्मचर्य व्रत का जो आश्रय ग्रहण करते हैं उनके सारे दुष्टकर्म अनायास ही दूर हो जाते हैं। सीता के लिए देवों ने अग्नि को जलकुण्ड में परिवर्तित कर दिया था। जितनी भी सतियां हुईं उनकी देवों ने रक्षा की है। सेठ सुदर्शन की सूली सिंहासन बन गई। इस प्रकार के अनेक उदाहरण ब्रह्मचर्य की महिमा को बताने वाले हैं।

शील और सन्तोष के धारण करने वाले भव्यजीवों को श्रेष्ठ गुरुओं के प्रसाद से भेद तथा अभेद रूप नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य सदा पालन करना चाहिए।

ब्रह्मचर्य व्रत महा दुर्द्धर है। इसलिए विषयों की आशा दूर करके इसको भले प्रकार अवश्य धारण करना चाहिए। स्त्रीसुख में लीन हुए मदोन्मत्त मनरूपी हाथी से रक्षा करके स्थिर करना चाहिए। संसार के समस्त जीव इस ब्रह्मचर्य के होने से ही संसार समुद्र से पार हाते हैं। ब्रह्मचर्य के बिना व्रत करना, तप करना व्यर्थ है।

अनेक अखण्ड व्रत करने वालों के वृत्तान्त शास्त्रों में प्राप्त होते हैं। इस ब्रह्मचर्य व्रत से मानव संसार समुद्र से सहज ही पार हो जाता है।

हे आत्मन्! शीलव्रत की रक्षा के लिए हर संभव प्रयत्न करें। जिस प्रकार खेत की रक्षा के लिए चारों ओर बाड़ लगाई ताजी है, उसी प्रकार शीलव्रत की सुरक्षा के लिए अधोलिखित नौ बातों का अवश्य ही पालन करना चाहिए। ये नौ कार्य शील की सुरक्षा के लिए बहुत आवश्यक हैं-

1. स्त्रियों के सम्पर्क से दूर रहना।

2. स्त्रियों के रूप और सौन्दर्य कोे विकार भाव से नहीं देखना।

3. स्त्रियों के साथ रागात्मक सम्भाषण से बचना।

4. पूर्व में भोगे हुए विषयों का स्वरूप स्मरण कर कथन नहीं करना।

5. कामोद्धीपक पदार्थों का सेवन नहीं करना।

6. कामशास्त्रों का पठन-पाठन व श्रवण नहीं करना।

7. परस़्ित्रयों के साथ शय्या आसन आदि पर नहीं बैठना।

8. कामभोग की कथा में आसक्ति नहीं करना।

9. कामोत्तेजक भोजन नहीं करना।

इन शील रक्षा के उपायों का जो पालन करता है उसका ब्रह्मचर्य पूर्ण सुरक्षित रहता है। महाभारत में कहा गया है कि ‘परं तत्सर्व धर्मेभ्यस्तेन यान्ति परां गतिम्’ अर्थात् ब्रह्मचर्य सब धर्मों में सर्वश्रेष्ठ धर्म है और इससे परम पद की प्राप्ति होती है। इसीलिए दशधर्मों में इसे सबसे अन्तिम धर्म के रूप में कहा है। सभी धर्मों का यह फल है। शील के विषय में कहा है-

शीलेन हि त्रयो लोका शक्या जेतुं न संशयः।

न हि किं किंचिद् साध्यं वै लोके शीलवतां भवेत्।।

शील के द्वारा तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। इसमें कोई सन्देह नहीं। शीलवानों को कुछ भी असाध्य नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं। शील का पालन ही ब्रह्मचर्य है और साधु समस्त स्त्रियों के त्यागी होने से पूर्ण ब्रह्मचारी और ब्रह्मचर्य महाव्रत के धारक होते हैं। उनके ब्रह्मचर्य में मन-वचन-काय से दोष नहीं लगना चाहिए। तभी उनके लिए स्वर्ग मोक्ष पददायक के रूप में ब्रह्मचर्य व्रत की महिमा कही गई है।