दृष्टि न दोषों पर जाये – गणाचार्य श्री विरागसागरजी मुनिराज

दृष्टि न दोषों पर जाये – गणाचार्य श्री विरागसागरजी मुनिराज



मैं हमेशा रागद्वेष में ही संलग्न रहा अब कुछ अपने लिए करना है और उन राग-द्वेष परियाामों से मुक्ति पाना हैजब ऐसे भाव व्यक्ति में आ जाते है तो फिर दृष्टि पर के दोषों पर नहीं जाती है बुराई, दूसरों की निंदा के भाव नहीं होते। दृष्टि पर द्रव्यों से हटकर निज द्रव्य पर केंद्रित हो जाती है कि मुझे, मुझमें ही एकीकार करना है। पर द्रव्यों में न तो मेरा प्रवेश है न त्रिकाल में प्रवेश होना संभव है। जब यह ध्रुव सत्य है तो क्यों न मैं उस ही स्वीकार करूँजब साधक चिंत की उत्कृष्टता को प्राप्त होता है तो पर में न राग भाव होता है न द्वेष भाव। संपूर्ण पर द्रव्ये के प्रति माध्यस्थ्य, उपेक्षा भाव जाग्रत हो जाता है। फिर व्यक्ति न तो पर निंदा करता है न आत्म प्रशंसा, क्योंकि वह जानता है कि मेरी तरह प्रत्येक आत्मा का स्वचतुष्टय पृथक-पृथक स्वाधीन है तथा समान है। फिर ऊँच-नीच का भेद ही समाप्त है उस भगवती शक्ति पर दृष्टि जाते ही राग-द्वेष का विलय हो जाता है और परम वीतराग समरसी भाव जाग्रत हो जाता है। परंतु जो व्यक्ति स्व द्रव्य को छोड़ पर द्रव्यों को ही देखता रहता है। उसे मात्र दोष ही दोष दिखाई देता है।


ये उपदेश भिण्ड में विराजमान पूज्य गणाचार्य श्री विरागसागर जी मुनिराज देते हुए आगे कहा कि- परंतु ऐसा भी न हो कि आप दूसरों की बुराई पर पर्दा डालते जाओ तो उसका भविष्य ही बिगड़ जायेगा इसलिए सम्यग्दृष्टि उपगूहन के साथ-साथ स्थितिकरण भी करता है जो ऐसा कहे हमें क्या करना उनसे, वे सोते है तो सोनेदो, उनके ही व्रत में दोष लगेगा, श्रावक उन्हें सोता देखेंगे तो उनकी ही हँसी निकालेंगे, हमारा क्या चला जायेगा जो जैसा करता करने दो हमें क्या मतलब, हमें क्या लेना-देना। हम बोलकर क्यों बुरे बनें?


जिसके मन में साधर्मी के प्रति ऐसे उपेक्षा भाव आ गये वह सम्यग्दर्शन का पालन नहीं कर सकता, उसका सम्यग्दर्शन निर्मलता को प्राप्त नहीं हो सकता। यदि हम देख रहे हैं कि दूसरा गड्ढे में गिर रहा है और हमारे भाव उसे सीलने के न हों तो वह भी ठीक नहीं है। सम्यग्दृष्टि जीव गिरते को सदैव हाथ का सहारा देता है। यद्यपि यह भी सत्य है कि हमें साधर्मी के साथ प्रेम व वात्सल्य के साथ, उसकी मर्यादा का ध्यान रखते हुए कोई बात बोतना चाहिए। यदि आप अपने साधर्मी को अपना भाई न समझकर गुरु की तरह डाँटने-फटकारने लग जाओगे तो वह आपकी अच्छी बात को भी स्वीकार नहीं कर पायेगा। क्योंकि गुरु तो एक ही होते हैं। गुरु की वह सुन भी लेगा क्योंकि वे गुरू हैं। परंतु आपकी नहीं सुन पायेगा। इसलिए साधर्मी के साथ मित्रवत् बात करिये।


-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज', इन्दौर 9826091247