उत्तम तप सब मांहि बखाना
(पर्यूषण पर्व का सातवां दिवस उत्तम तप धर्म)

 

उत्तम तप सब मांहि बखाना

 -डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर, 9826091247


 

  पर्यूषण पर्व के दस धर्मांगों में सप्तम अंग है उत्तम तप। तप की पद्धति बहुत प्राचीन है। श्रमण संस्कृति का इस युग में जब से जन्म हुआ तब से तप की परम्परा अनवरत चली आ रही है।  तप का नाम सुनते ही लगता है यह कोई ऐसी विशिष्ट क्रिया है जो सामान्य मनुष्य कर ही नहीं सकता। तप करना केवल ऋषि-मुनियों का कार्य है या उन्हीं से शक्य है। किन्तु ऐसी बात नहीं है। तप के जो भेद प्रभेद बताये हैं वे तपस्वी तो करते ही है। किन्तु उनके अन्तर्गत एक सामान्य श्रावक भी तप कर सकता है और करता है। श्रावक के व्रत नियमों के अन्तर्गत भी तप आता है।  तप के बारह भेद बताये गये हैं-

1. अनशन- उपवास श्रमण व श्रावक दोनों करते हैं, बल्कि उपवास ऐसा तप है जो प्रायः सभी धर्मों के त्यागी व सामान्य जन भी करते हैं। उपवास का अर्थ है नित्य प्रपंचों के कार्यों को छोड़कर जो अपने आत्मा के समीप में वास-निवास करता है। निज का निज में वास उपवास है। इसके लिए सबसे पहले खान- पान छोड़ा जाता है, भोजन-पानी का त्याग किया जाता है। जितने दिन खान-पान  त्यागा जाता है उतने दिन का उपवास होता है। 2. ऊनोदर- ऊन$उदर - भूख से कम खाना या दिन में केवल एक बार भोजन करना सो ऊनोदर है। इसे एकासना भी कहते हैं। एक असन अर्थात् एकबार भोजन। 3. वृत्तिपरिसंख्यान- जब मुनिराज आहार चर्या या गोचरी के लिए निकलते हैं तो वे एक नियम लेकर निकलते हैं कि मुझे ऐसा श्रावक ऐसी स्थिति में पड़गाहना करेगा, आहार के लिए निवेदन करेगा तभी वे आहार लेंगे अन्यथा नहीं लेंगे। इस विधि के कारण मुनिराजों को कई कई दिन तक आहार नहीं मिलता और उनके उपवास हो जाते हैं। आदिनाथ भगवान को तो छह माह तक आहार नहीं मिला था, लोग आहर देना जानते ही नहीं थे, अपनी अनेकों वस्तुएं भेंट में देने आ जात थे तब छह माह बाद उन्हें गन्ने के रस का आहार दिया गया था। तभी से अक्षय तृतिया पर्व प्रारंभ हुआ माना जाता है। 

4. रस परित्याग। खट्टा, मीठा, चरपरा आदि किसी एक या अधिक रसों-इस तरह के स्वाद वाली वस्तुओं को दिन, सप्ताह, माह, वर्ष या जीवन पर्यन्त को त्याग देना रस परित्याग है। कुछ लोग अन्न ही छोड़ देते हैं, कुछ मीठा, घी आदि त्याग देते हैं। साधु-मुनि गण तो प्रायः ऐसा करते हैं। तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मतिसागर मुनिमहाराज तो एक दिन छोड़कर एक दिन आहार लेते थे और वे केवल छांछ लेते थे। ऐसा उन्होंने लगभग 20 वर्षों तक किया। 5. विविक्त शयनासन। सोते समय बार बार करवट बदलने से निकट आ गये लघु व सूक्ष्म जीव दब कर मर न जायें इसलिए मुनिगण एक करवट लेकर ही सोते हैं, करवट बदलना पड़े तो वे पिच्छिका से स्थान को साफ करते हैं फिर पुनः लेटते हैं। बैठने के लिए भी स्थान शोध लेते हैं।

6. कायक्लेश। स्वशरीर को कष्ट हो, लेकिन अन्य प्राणियों को दुख न पहुंचे, चाहे मक्खी-मच्छर ही क्यों न काटते रहें ऐसी क्रिया सामान्य जीवन में रखना कायक्लेश है। 7. प्रायश्चित। जाने या अनजाने में कह गई गल्तियों या व्रतों में लगे दोषों के लिए अपने गुरु आचार्य से दण्ड मांगना और उसका अनुपालन करना प्रायश्चित है। इससे परिणामों में निर्मलता, दोषों से निवृत्ति और कर्मों का क्षय होता है। 8. विनय सम्पन्नता। विनय, नम्रता, देव-शास्त्र-गुरु का आदर करना विनय नामका तप है। यह श्रावक और साधु दोनों करते हैं। 9. वैयावृत्य। वैयावृत्य या वैयावृत्ति रोग ग्रस्त, ग्लान, वृद्ध मुनि, त्यागी, सुश्रावक की सेवा करना, उनके आहार-विहार-नीहार में सहयोग करना वैयावृत्ति है। यह तप श्रावक और साधु यथावसर करते हैं। 10. स्वाध्याय। स्वाध्याय तप श्रावक और साधु दोनों को अनिवार्य है। स्वध्याय के बिना श्रावक श्रावक नहीं और साधु की साधुता नहीं, इसी से ज्ञानार्जन, अध्ययन अध्ययापन होता है। 11. व्युत्सर्ग। व्युत्सर्ग  अर्थात् देह-शरीर से ममत्व को छोड़ना है। जिसका इलाज न दिखता हो, मिटने का उपाय न दिखता हो ऐसा असाध्य रोग हो जाने पर, वृद्ध अवस्था में शरीर पूर्ण कृश और अधिकतर अंगों के द्वारा कार्य बंद करने पर, उपसर्ग आ जाने पर, धर्म-देश की रक्षा के लिए शरीर का त्याग करना व्युत्सर्ग है।

12. ध्यान। सल्लेखना की अवस्था में अविचल शुभ ध्यान में आरूढ़ हो जाना, स्वयं में रमण करना ध्यान है। इस तरह तप बारह प्रकार का है।

जैन सिद्धांत के अनुसार कर्मों की निर्जरा अर्थात् पूर्व में किये गये कर्मों को नष्ट करने के लिए तपश्चरण करना आवश्यक है। जीव अच्छे-बुरे कार्य करके कर्म बांध लेता है, उन्हें नष्ट करने के लिए तप करना आवश्यक है। आचार्य कुंदकुंद ने कहा है कि चाहे वह चार ज्ञान-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान का धारी ही क्यों न हो, उसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध ही क्यों न हो गया हो अर्थात् वह निश्चित रूप से तीर्थंकर बनने वाला हो तो भी उस जीव को तपश्चरण करना आवश्यक है। ये सब जानकर हमें उपरोक्त भेदों के स्वरूपानुसार यथाशक्ति तपाचरण करना चाहिए।