जैन धर्म को विश्व धर्म बनाने तथा अहिंसक शाकाहार की प्रतिष्ठापना करने के संदर्भ में
आवश्यकता है अहिंसा के क्षेत्र में ठोस पहल करने की
- डॉ. चीरंजीलाल बगड़ा
• आज से 24 वर्ष पूर्व अगस्त 1996 की बात है, अमेरिका के पीट्सबर्ग शहर में इंटरनेशनल वेजीटेरियन यूनियन, यू.के द्वारा विश्व शाकाहार सम्मेलन आयोजित थाभारतवर्ष में शाकाहार के लिए मद्रास स्थित संस्था इंडियन वेजीटेरियन कांग्रेस कार्यरत है, जिससे जुड़कर जनवरी 1994 में हमने कोलकाता में इसके पूर्वांचल मुख्यालय की स्थापना की थी। मद्रास के प्रसिद्ध मेहता ज्वेलर्स ग्रुप के श्री सुरेन्द्र मनीभाई मेहता इस संस्था के समर्पित महामंत्री थे, जो उस वर्ष इंटरनेशनल वेजीटेरियन यूनियन के भी राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। गर्व की बात हैं कि शाकाहार के लिए 100 वर्षों से समर्पित इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन के अध्यक्ष पद को सुशोभित करने वाले वे पहले भारतीय और एशियन व्यक्ति रहे हैं। इस संगठन में मुख्यतः यूरोपियन लॉबी ही हावी रहती आई है।
• श्री सुरेन्द्र मेहता के आग्रह एवं सौजन्य से मुझे जीवन में पहली बार सात समुद्र पार स्थित सुदूर अमेरिका जाने और विश्व शाकाहार सम्मेलन में इंडियन वेजीटेरियन कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करने का सुअवसर मिला। मैंने वहाँ पीट्सवर्ग में तथा बाद में वाशिंगटन और न्यूयार्क शहरों में मेरे द्वारा तैयार, शाकाहार प्रदर्शनी को एक्जीविट किया और सर्वत्र सराहना बटोरी। किसी भी संस्था में चुनाव लड़ने का जिन्दगी का पहला अवसर भी मुझे वहीं अमेरिका ने दिया, जिसमें मैं इंटरनेशनल वेजीटेरियन यूनियन के आगामी कार्यकारिणी के लिए भारत के प्रतिनिधि के तौर पर उम्मीदवार बनकर खड़ा था।
• वॉयस ऑफ अमेरिका ने वाशिंगटन से मेरी रेडियो वार्ता प्रसारित की। इस यात्रा प्रवास में हमने अनुभव किया कि शाकाहार-अहिंसा के क्षेत्र में भारतवर्ष का और विशेष रूप से जैन धर्म के योगदान को प्रायः सभी प्रमुख वक्ताओं ने रेखांकित किया। जैन संत श्री चित्र भानुजी से मेरी वहाँ यादगार मुलाकात हुई। शाकाहार-अहिंसा के क्षेत्र से जुड़े विश्व के अनेक वरिष्ठ-लेखकों-विद्वानोंमनीषियों से व्यक्तिगत संपर्क एवं परिचय हुआप्रेस वार्ताओं के दौरान सबसे कचोटने वाला प्रश्न जो मुझसे पूछा गया, वह था कि 'शाकाहार-अहिंसा सिद्धान्त के उद्गम स्थल भारत देश में जहाँ आज भी सभी धर्मों के वरिष्ठ संतों एवं धर्माचार्यों की उपस्थिति/मौजूदगी है, फिर क्या कारण है कि भारत देश में आज हिंसा का बोलबाला है, मांसाहार वृद्धि पर है, नैतिक पतन पराकाष्ठा पर है, मिलावट-घूसखोरी बेलगाम है। इन सबका कारण क्या है? विश्व आज शाकाहारकरुणा को अपना रहा है, पशु-क्रूरता को रोकने के लिए विगन संस्कृति को अपना रहा है, फिर भारत में इसके विपरीत क्यों हो रहा है? धर्माचारियों का समाज में कोई स्पष्ट प्रभाव प्रतिबिम्बित क्यों नहीं हो रहा है?'
• हमसे तत्काल इसका उत्तर देते नहीं बना, परंतु हमारे मन में यह प्रश्न कचोटता रहास्वदेश लौटकर आने के बाद भी हम चैन से नहीं बैठ सकें। प्रश्न कचोटता रहा। श्री सुरेन्द्र मेहता-मद्रास और श्री लक्ष्मीनारायण मोदी-दिल्ली प्रारंभ से ही शाकाहार-अहिंसा-जीवदया के क्षेत्र में हमारे सहकर्मी, सहविचारधर्मी रहे हैं। हम तीनों मंथन करते रहें। दिल्ली-बंबई-मद्रास सब जगह चर्चा का दौर चलता रहा। इस सिलसिले में हम तीनों अनेक जैन संतों से मिले, लाडनूं जैन विश्वभारती जाकर महाप्रज्ञजी से चर्चा की, ऋषिकेष जाकर स्वामी चिदानंदजी से विस्तृत चर्चा की।
• एक कहावत है कि जैसा खावे अन्न- वैसा होवे मन। जैन धर्म में साधारण गृहस्थ के लिए सिर्फ संकल्पी हिंसा का प्रमुखता से त्याग करना बताया गया है। परंतु विडम्बना है कि ऋषि और कृषि की इस विराट परंपरा वाले हमारे देश भारत में कृषि क्षेत्र में कीटनाशकों का प्रयोग निरंतर वृद्धि पर है, जो दूध उपलब्ध होता है उसके लिए ऑक्सीटोशीन के इंजेक्सन का सर्वत्र प्रचुर मात्रा में उपयोग हो रहा हैयानि हमारा आहार दूषित शाकाहार है। सात्विक व अहिंसक आहार नहीं है। जब हमारा आहार ही दूषित है, संकल्पी हिंसा से उत्पन्न है तो मानसिकता पवित्र कैसे रह सकती है?
• रसायन मुक्त कृषि को प्रोत्साहित करने हेतु हमने अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये, सरकारी योजनाओं में आर्गेनिक खेती को एजेन्डा में शामिल करवाया। 500 करोड़ रुपये की अधिकृत पूंजी वाली एक संस्था अहिंसा रिसर्च फाउन्डेशन का गठन किया। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉ. स्वामीनाथन को साथ में जोड़ा। परंतु श्री दीपचंद गार्डी एवं श्री सुरेन्द्र मेहता जैसे व्यक्तियों के, पहले रुग्ण रहने एवं बाद में उनके अवसान के साथ ही यह संस्था निष्क्रिय होती चली गई|
• डॉ. नेमीचंद जैन-इंदौर का हमे प्रारंभ से ही इस क्षेत्र में मार्गदर्शन मिलता रहा, वे हमारे घनिष्ठ थे, उन्हें हम वर्तमान युग के शाकाहार क्रांति के जनक कह सकते हैं। हम लोगों का प्रारंभ से ही यह सपना रहा है कि जैन धर्म में 21वीं सदी का धर्म बनने की सम्पूर्ण क्षमता और संभावना है। बशर्ते अहिंसा के व्यापक-वैज्ञानिक प्रचार-प्रसार के लिए हम धरातल स्तर पर अहिंसा अकादमी और अहिंसा इन्स्टीच्यूट जैसे प्रकल्पों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मूर्त रूप में साकार करने की दिशा|में अग्रसर हों। हमारी प्राथमिकता जिस दिन जड़ निर्माण से हटकर चैतन्य निर्माण की ओर होगी, तो सम्पूर्ण विश्व स्वतः ही जैन धर्म की ओर आकर्षित हो जायेगा। हमारा हजारों करोड़ रुपये का निवेश प्रतिवर्ष मंदिर मूर्ति निर्माण में लग रहा है, आवश्यकता सिर्फ दिशा बदलने की है, समाज को अपने निवेश का रिटर्न मिलना शुरु हो जायेगा|
• अभी एक वेबिनार में जैन समाज के गौरव, प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक प्रो. राजमल जैन ने अहिंसा की वैज्ञानिकता के संदर्भ में जो तथ्य-आंकड़े एवं अध्ययन प्रस्तुत किए हैं, अगर अहिंसा अकादमी जैसा सशक्त मंच हमारे पास होता तो इसका कितना प्रभाव होता, कल्पनातीत हैवैज्ञानिक शोध अध्ययन के साथ डॉ. राजमल जैन ने बताया कि किस प्रकार धरती के ऊपर आसमान में सूक्ष्म वायुकाय के जीवों की Aviation इंडस्ट्री के व्यापारिक विस्तार से व्यापक हिंसा हो रही है, उनका वायुमंडल में कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है। इसी तरह समुद्र के अंतस्तल के प्राणियों का डीप-सीफीशिंग द्वारा व्यापक हनन किस प्रकार ऑक्सीजन डिपोजिट को खत्म करके ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को निरंतर बढ़ावा दे रहा है। किस प्रकार दुनिया में मांसाहार हेतु चौपाये जानवर-पक्षी एवं मत्स्य जीव करोड़ों अरबों की संख्या में प्रतिदिन हत्या की जा रही है और इसका प्रकृति पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है। प्रकृति और मौसम के बदलाव का उनके द्वारा चार हजार वर्षों के प्रस्तुत सूक्ष्म तुलनात्मक वैज्ञानिक अध्ययन चौंकाने वाले हैं। इस पर कभी हम विस्तार से अलग से प्रकाश डालेंगे।
• हमें नीतिगत स्तर पर कार्य करने वाले राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक अपनी पकड़ मजबूत करनी होगी। भक्ति एक वैयक्तिक विषय है। भक्ति और लोक-लुभावन कार्यों से हटकर जैन संस्कृति को विश्व संस्कृति बनाने के लिए कुछ ठोस बुनियादी कार्य समाज की प्राथमिकता होनी चाहिएविजन और एक्सन का जब सम्मिश्रण होगा तो चमत्कारिक परिणाम सामने आने स्वभाविक प्रक्रिया है। हमें जैन धर्म को निज धर्म से जन धर्म बनाने की दिशा में भी चिंतन करना चाहिए।
• इसी प्रकार अभी सोश्यल मीडिया के माध्यम से ज्ञात हुआ है कि चर्म नगरी (कानपुर) से मांसाहारी देशी घी किस प्रकार सिर्फ 150 रुपया किलो में बड़ी मात्रा में तैयार होकर हमारे धर्मायतनों तक में प्रवेश ले रहा हैदूसरी तरफ अनेक गौशालायें देशी गाय के बिलोना के घी के नाम पर घी को 700 रुपये से 3000 रुपये प्रतिकिलो तक बेच रहे हैं। विज्ञापन के माध्यम से बेचे जाने वाले अधिकांश पैक्ड फुड या प्रसाधन सामग्रियों में जाने-अनजाने में मांसाहार परोसा जा रहा है। प्रिजरवेटिव के नाम पर इमूल्सीफॉयर मिलाया जाता है, जो प्राकृतिक और रासायनिक दोनों प्रकार के होते हैं। किसमें क्या मिला है, इसका निर्धारण कैसे हो? आइसक्रीम, चॉकलेट, केक, पेस्ट्री इन सबमें अंडे का मिश्रण किया जा रहा है। हम अगर वर्तमान में यह सोचें कि बाजार की वस्तुओं का उपयोग और उपभोग पूर्णतया बंद कर देना चाहिए तो यह सर्वथा अव्यवहारिक व काल्पनिक वस्तुस्थिति है। हमें समाज के लोगों के समक्ष अहिंसक विकल्प प्रस्तुत करने होंगे तभी धरातल पर अहिंसा की प्रतिष्ठापना संभव है।
• किस पदार्थ में क्या मिला है, इसका निर्धारण कैसे हो? हमारा प्रारंभ से ही यह कहना रहा है कि अहिंसा इन्स्टीच्यूट यानि अहिंसा लेबोरेटरी का यथाशीघ्र हमें गठन करना चाहिए, क्योंकि अहिंसा ही हमारे धर्म का मुख्य आधार हैजयपुर के हमारे एक साथी की दिल्ली में एक कॉमर्शियल लैब भी है, ऐसी हमें जानकारी मिली है। हम उनसे भी संपर्क में हैं|
• इंटरनेशनल अकादमी ऑफ अहिंसा कल्चर के नाम से हम एक संस्था / ट्रस्ट के गठन करने पर विचार कर रहे हैं। इस संबंध में जनवरी 2020 अंक में भी हमने दिशाबोध में अपने विचार विस्तार से प्रस्तुत किए थे, वे भी द्रष्टव्य है। विषय में रुचि रखने वाले इच्छुक प्रबुद्ध व्यक्ति हमसे व्यक्तिगत संपर्क करें। इस संबंध में संपूर्ण समाज का हमें मार्गदर्शन एवं सहयोग मिलेगा ऐसा हमें पूर्ण विश्वास है। इतिशुभम|
- डॉ. चीरंजीलाल बगड़ा, कोलकाता
मो. 9331030556
संपादक - दिशाबोध