दूसरों की बुराईयाँ देखने बजाय अपनी देखें तो कल्याण हो जाए : आचार्य विराग सागरजी

( धर्म )


दूसरों की बुराईयाँ देखने बजाय अपनी देखें तो कल्याण हो जाए : आचार्य विराग सागरजी


मनुष्य का स्वभाव हो गयाहै कि उसे दूसरों की बुराईयाँ दिखाई दती हैं, ये उसके संस्कार बन गये हैं। जितनी बारीकी से हम दूसरों की बुराईयाँ देखते हैं उतनी बारीकी से यदि हम अपनी बुराईयाँ देखें तो अपना कल्याण हो जाए|


बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय।


जो मन खोजा आपना मुझसे बुरा न कोय।।


ये विचार रखे भिणड में विराजमान गणााचार्य श्री विरागसागर जी मुनिराज ने अपने पृवचनों में त्तयकत्र किये। उन्होंने कहा कि एक अँगुली जब हम सामने वाले पर उठाते हैं तो तीन अपनी ओर स्वत: उठती हैं। सामने वाला एक गुना बुरा है तो हम तीन गुने। हम 1 अँगुली को देखते हैं यदि हमारी दृष्टि में तीन अंगुली दिख जायें तो हमारी एक अँगुली भी नहीं उठेगी। अपितु सम्यग्दर्शन के अंग स्वरूप प्रेम, वात्सल्य, उपगूहन, करता है। तथा एकांत में समझा देता है। जबकि मिथ्यादृष्टि बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहता है। दूसरे की बुराई देखी है तो तुम्हारी दृष्टि तो बुरी होगी ही।


कवि कह रहा है- 'दृष्टि न दोषों पर जावे।' गाँधी जी का बंदर दोंनों आँखों पर हाथ रखे है कि दृष्टि दोषों पर न जावे। परंतु संस्कार वशात् दृष्टि उसी पर जाती है। श्री कृष्ण व अर्जुन रथ पर सवार हो वन विहार कर रहे थे। चलते-चलते ऐसे स्थान पर रथ पहुँचा जहाँ अर्जुन को कहना पड़ा कि हे श्री कृष्ण! रथ मोड़ लीजिए। श्री कृष्ण ने कहा क्या हुआ? अर्जुन कहते हैं पहले रथ मोड़िए फिर बताता हूँ। श्री कृष्ण कहते हैं बताओ पहले क्या हुआ? अर्जुन कहते हैं देखो वह मृतक बीभत्स कुत्ता, क्या वह आपको नहीं दिख रहा। श्रीकृष्ण बोले तुमसे देखा नहीं जा रहा तो क्यों देखते हो। देखो तो उस कुत्ते के दाँत कितने सुंदर हैं। वे देखो नप्राय: ये आँखें वही देखती हैं जो नहीं देखना चाहिए। जिसे देखना चाहिए उसे हम नहीं देख पाते। अनादि के संस्कार ऐसे होते हैं। न देखने योग्य को हम देखते हैं, न सुनने योग्य को सुनते हैं। प्रवचन-व्याख्यान में कोई झगड़ रहा हो तो दृष्टि उस ओर शीघ्रता से चली जाती है। किसी के अपराधों को हम हर पल याद रखते हैं। गुरु के प्रवचन का एक शब्द भी याद नहीं रहता। किसी से झगड़ा हो जाए तो बुराई पर बुराई शुरु होती रहती है परंतु जिस की बुराई की जाती है वह बुरा हो भी और न भी हो। परंतु बुराई करने वाला स्वयं तो बुरा है ही। बुराई करने वाला अपना परिचय दे देता है कि स्वयं बुरा है।


मन खराब है, माथा खराब होगा।


करोबुराई पर की, बुरा स्वयं का होगा।।


आप दूसरे की बुराई करो तो हो सकता है कि सामने वाला संत प्रवृत्ति का हो और वह व्यक्ति सहन कर ले। संत शूल को भी फूल मान अंगीकार कर लेते हैं। क्योंकि वे फूल की तरह होते हैं। जो स्वयं फूल जैसा है उसके सामने शूल भी फूल बन जाते हैं।


एक मंदिर जी में एक चित्र बना हुआ था- उसमें सीता को जलाने धधकती अग्नि ज्वालाएँ जलायी गयी थीं। बुराई करने वाला सामने वाले को वैसी ही सीता की तरह अग्नि ज्वाला में पटक देता है। परंतु समता शील साधकों की अग्नि ज्वाला सीता की तरह शीतल जल में बदल जाती है। किसी के मर्मभेदी वचनों को सुन खेद नहीं करना आक्रोश परीषहजय है। मुनि रास्ते पर जा रहे हैं कोई कह दे नंगा जा रहा है, लुच्चा जा रहा है। संत सकारात्मक चिंतन करते हैं इसने नंगा ही तो कहा तो नग्न ही हूँ। लुच्चा कहा तो ठीक ही है क्योंकि हम केशलौंच करते हैं इसलिए लुच्चा ही है। कोई संत को पागल कह दे तो वे सोचते हैं जिसने पापों को गलाया वह पागल, संत को कुत्ता कह दे तो वे सोचते हैं कि जो कुत्सित मार्ग को त्यागे वह कुत्ता है। वे सोचते हैं कि सामने वाले ने क्या गलत कहा, जब उसने सत्य कहा है तो मुझे क्यों बुरा लगेगा। उनके सकारात्मक चिंतन के माध्यम से वे सारे अपशब्दों के बाण फूल बन जाते हैं। ये है सकारात्मक सोच। इस तरह दूसरों की बुराई नही देखाता हुआ व्यक्ति अपने आत्म कल्याण के मार्ग पर शीघ्रता से बढ़ता है।


-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन मनुज', इन्दौर 9826091 247